कुछ दिन पहले जनाब सतपाल जी के बज्म में एक तरही का आयोजन किया गया था ... उसमे इस अदने ने भी कुछ एक शे'र कहने की कोशिश की थी चूँकि मैं अभी सिखने की प्रक्रिया में हूँ तो गलतियाँ मुआफ करने की गुजारिश आप सभी से करूँगा ... मिसरा-ए-तरह था दिल अगर फूल सा नहीं होता... बह'रे खफ़िफ़ की मुजाहिफ़ शक्ल है ...
बात जब ये चली हीं है तो अभी कुछ दिन पहले बहन कंचन से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ फ़िर खूब जमा रंग... एक शे'र हलाकि उनके कहने पे ही जन्म लिया था ,इस शे'र से कोई तात्पर्य नही है इसे उनके साथ नही जोड़ा जाना चाहिए ... बस ये है के इसके जन्म लेने में उनका हाथ है ....

मैं खुश हूँ के तुने मुझे हाशिये पे रक्खा है
कम-से-कम वो जगह तो पूरी की पूरी मेरी है ...
कम-से-कम वो जगह तो पूरी की पूरी मेरी है ...
अब बात करते है मिसरा-ए-तरह की ...तो पढ़ें और आनंद लें...
२ १ २२ , १ २ १ २ , २ २ या १ १ २ ,
२ १ २२ , १ २ १ २ , २ २ या १ १ २ ,
रंग-ओ-बू पर फ़िदा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कह के जो तू गया नहीं होता
फ़िर तेरा आसरा नहीं होता
आप आकर गए क्यों महफ़िल से
इस तरह हक़ अदा नहीं होता ॥
सब से अक्सर यही मैं कहता हूँ
बा-वफ़ा बे-वफ़ा नहीं होता ॥
कौन कहता है कुछ नहीं मिलता
इश्क में क्या छुपा नहीं होता ॥
दिल की कह तो मैं देता उनसे मगर
क्या करूँ हौसला नहीं होता ॥
प्रकाश 'अर्श '
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कह के जो तू गया नहीं होता
फ़िर तेरा आसरा नहीं होता
आप आकर गए क्यों महफ़िल से
इस तरह हक़ अदा नहीं होता ॥
सब से अक्सर यही मैं कहता हूँ
बा-वफ़ा बे-वफ़ा नहीं होता ॥
कौन कहता है कुछ नहीं मिलता
इश्क में क्या छुपा नहीं होता ॥
दिल की कह तो मैं देता उनसे मगर
क्या करूँ हौसला नहीं होता ॥
प्रकाश 'अर्श '