दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥
वो शोखी चहरे पे ऐसी के ज़माने फ़िर कहाँ ।
उनके गिले होंठ ,वो हिना-ओ-रुखसार था ॥
खुली थी जुल्फ ,था बदन जैसे संगेमरमर ।
तिरछी नज़र का तीर यहाँ तो आर-पार था ॥
वो परी थी, या कोई हूर थी ज़मीं पे उतरी ।
हुस्नो-शबाब का उनपे तो यो भर-मार था ॥
आफत हुई है "अर्श" अब तो जीना मुहाल है ।
दिल पे अब अपने कहाँ इख्तियार था ॥
प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८
हिना-ओ-रुखसार = गलों पे छाई लाली ।
भाई साहब कौन है वो जिसकी तारीफ़ में इतना कुछ लिख डाला!
ReplyDeleteविनय जी की शंका का
ReplyDeleteसमाधान जल़्दी करियेगा अर्श जी
फिलहाल बधाई
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ReplyDeleteग़ज़ल की क्लास करने के लिए कुछ ख़ास नही करना है बस गुरु जी की के ब्लॉग पर जाइये और पुराणी पोस्ट पढिये और नए दिए होमवर्क को पूरा करिए और निरंतर बने रहिये जो भी दिक्कत आए गुरु जी से पूछिए
ReplyDeleteआपका हार्दिक स्वागत है
गुरु जी का ब्लॉग है
www.subeerin.blogspot.com
मेरे ब्लॉग पर आकर भी वहां का लिंक पा सकते हैं
वीनस केसरी
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ReplyDeleteदिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
ReplyDeleteउनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥
"wow what a pain with creative beauty..."
Regards
अच्छी कविता। पसंद आयी।
ReplyDeleteमतअले का पहला मिसरा कमाल का है अर्श साब बहुत बधाई
ReplyDeleteदिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
ReplyDeleteउनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥
achcha likha hai..