Wednesday, October 15, 2008

दिल जार - जार था ..................

दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥

वो शोखी चहरे पे ऐसी के ज़माने फ़िर कहाँ ।
उनके गिले होंठ ,वो हिना-ओ-रुखसार था ॥

खुली थी जुल्फ ,था बदन जैसे संगेमरमर ।
तिरछी नज़र का तीर यहाँ तो आर-पार था ॥

वो परी थी, या कोई हूर थी ज़मीं पे उतरी ।
हुस्नो-शबाब का उनपे तो यो भर-मार था ॥

आफत हुई है "अर्श" अब तो जीना मुहाल है ।
दिल पे अब अपने कहाँ इख्तियार था ॥


प्रकाश "अर्श"
१४/१०/२००८

हिना-ओ-रुखसार = गलों पे छाई लाली ।

9 comments:

  1. भाई साहब कौन है वो जिसकी तारीफ़ में इतना कुछ लिख डाला!

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  2. विनय जी की शंका का
    समाधान जल़्दी करियेगा अर्श जी
    फिलहाल बधाई

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  4. ग़ज़ल की क्लास करने के लिए कुछ ख़ास नही करना है बस गुरु जी की के ब्लॉग पर जाइये और पुराणी पोस्ट पढिये और नए दिए होमवर्क को पूरा करिए और निरंतर बने रहिये जो भी दिक्कत आए गुरु जी से पूछिए
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    मेरे ब्लॉग पर आकर भी वहां का लिंक पा सकते हैं

    वीनस केसरी

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  6. दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
    उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥
    "wow what a pain with creative beauty..."

    Regards

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  7. अच्छी कविता। पसंद आयी।

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  8. मतअले का पहला मिसरा कमाल का है अर्श साब बहुत बधाई

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  9. दिल जब उधर से लौटा तो वो जार-जार था ।
    उनको तो शायद और किसी का इंतजार था ॥

    achcha likha hai..

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