Saturday, November 22, 2008

चल लौट चलें "अर्श" वहीँ अपने अब्तर में .....

ये कहाँ आ गया हूँ मैं , दीवानों के शहर में ।
हर वक्त खटकता हूँ यहाँ सबके नज़र में ॥

लिखता हूँ गर कोई ग़ज़ल होती न मुक्कमल ,
होती है ग़लत रदीफ़,काफिये में बहर में ॥

सब है अपनी धुन में, मतलब ही नही किसी को ,
कैसा है यहाँ चलो-चलन अपने -अपने घर में ॥

किया जो इज़हारे मोहब्बत, मैंने किसी से ,
टाला है वहीँ ,उसी ने ,बस अगर-मगर में ॥

होती हो तिजारत अगर मोहब्बत पे मोहब्बत ,
मैं भी खड़ा हासिये पे यहाँ सिम-ओ-जर में ॥

नही करनी मोहब्बत मुझे, न होगी ये मुझसे ,
चल लौट चले "अर्श"वही अपने अब्तर में ॥

प्रकाश "अर्श"
२१/११/२००८

अब्तर =मूल्यहीन,

15 comments:

  1. सिम-ओ-ज़र नहीं बाबा सीमो-ज़र... और हाँ हम अगर-मगर में टालने वालों में नहीं! यार हिन्दी कैफ़े इस्तेमाल करो टंकण(typing) के लिए!

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  2. विनय भाई मेरे हिसाब से तो वो सिम-ओ-जर है और सही शब्द है ... जिसको हिन्दी अनुवाद धन और दौलत है .... हिन्दी कैफे का इस्तेमाल मुझे शायद पता नही .. सुझाव दें...

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  3. बहुत अच्छी ग़ज़ल है--
    सभी शेर खूबसूरत हैं.
    दूसरा शेर नयापन लिए है.

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  4. बहुत सुंदर ! शुभकामनाएं !

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  5. जनाब अर्श साहब.
    आज इत्तेफाक से आपके ब्लॉग पर आ गया. आपकी ग़ज़ल का सिर्फ़ एक मिसरा दुरुस्त था. लेकिन आपके पढने वालों ने आपकी खूब-खूब तारीफें की हैं. फिर मैं भला क्या कहूँ. हिन्दी में शहर और बहर जैसे तलफ्फुज राइज हैं वरना अल्फाज़ तो शह्र और बह्र हैं. 'सीम' के मानी चांदी और 'ज़र' के मानी सोना के होते हैं. अब्तर के मानी गिरे हुए के होते हैं. तर सफिक्स है जो किसी भी लफ्ज़ के साथ लगता है. जैसे बेशतर, बेहतर, कमतर, ज़्यादातर वगैरा. आप चाहें तो अपनी ग़ज़ल इस तरह पढ़ें-
    हैराँ हूँ, कहाँ आ गया दीवाने शहर में.
    हर वक़्त खटकता हूँ यहाँ सबकी नज़र में.
    होती नहीं अब कोई ग़ज़ल मुझसे मुकम्मल,
    उलझावे रदीफों के हैं, अड़चन है बहर में.
    सब अपनी धुनों में हैं, किसी से नहीं मतलब,
    दुनिया से हैं उकताए हुए बंद हैं घर में.
    करता हूँ किसी से जो मैं इज़हारे-मुहब्बत,
    वो टालता है मुझको अगर और मगर में.
    अब आप मुहब्बत को तिजारत न समझिये,
    तुलता है नही इश्क कभी सीम वो ज़र में.
    अब करना नहीं मुझको किसी से भी मुहब्बत,
    खुश हूँ कि हूँ बे प्यार की इस राह-गुज़र में.
    ************

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  6. जनाब अल्तमश साहब ,
    सबसे पहले तो आपका मैं स्वागत करता हूँ अपने ब्लॉग पे.और उम्मीद करता हूँ आपका स्नेह हमेशा बना रहेगा ,जहाँ तक लफ्जो की बात है मानता हूँ आप उम्दा शायर और ग़ज़लकार होंगे ,मैंने जो यहाँ कुछ अल्फाज लिखे है उसमे सिम-ओ-जर पे बात हुई इसमे इस अल्फाज को मैंने सोने चाँदी के जगह पे धन दौलत केलिए लिया है ,जहाँ तक अब्तर का सवाल है तो उसका इस्तेमाल मूल्यहीन के लिए किया गया है जो मेरे ग़ज़ल केलिए सही है .. मगर आपने जो मेरी ग़ज़ल को एक नया रूप दिया है उसके बारे में मैं ये कहूँ के मेरी अपनी एक फीलिंग है जिसके तहत में लिखता हूँ जो शायद आप नही समझ पाये,कुछ जगह आपने तो पुरी ग़ज़ल ही बदल दी है जैसे एक शे'र की बात करे तो मैंने लिखा है ...
    होती हो तिजारत अगर मोहब्बत पे मोहब्बत ,
    मैं भी खड़ा हासिये पे यहाँ सिम-ओ-जर में ..
    मेरे कहने का मतलब है के ये जो दीवानों का शहर है उसमे अगर मोहब्बत की तिजारत मोहब्बत के लिए होता है तो मैं भी वहां सहिये पे हूँ अपनी मोहब्बत का धन दौलत लेके मोहब्बत लेने के लिए ,,,
    मगर आपने जो लिखा है उसमे है के ....
    आब आप मोहब्बत को तिजारत न समझिये ,
    तुलता नही इश्क यहाँ सिम वो जर में ...
    आपके कहने का मतलब साफ है के यहाँ मोहब्बत सिम वो जर में नही होता है ...आपकी बात अपनी जगह पे ठीक है ...... मगर मुझे नही लगत के मुझे अपनी ग़ज़ल इस तरह से पढ़नी चाहिए जो मैंने सोंचा ही नही है ,साहब मैंने अपनी सोंच के हिसाब से लिखा है ......
    मैं मानता हूँ आप उम्दा ग़ज़लकार है ....... और आपको अपने ब्लॉग पे मैं फ़िर से हमेशा की तरह स्वागत करता हूँ ....
    ग़ज़ल के मकते में भी अलग मेह्सुसियत के साथ मैंने लिखा जो आपने पुरा का पुरा परिवर्तित कर लिया है ...

    ब्लॉग पे आने के लिए आपका शुक्रिया जनाब ....

    आभार
    अर्श

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  7. दूसरी बात के ग़ज़ल के ४ शे'र में आपने तो पुरा ही परिवर्तन ला दिया मैं तो सिर्फ़ एक से ही अपनी इजहेरे मोहब्बत करता हूँ ,मगर आपके शे'र के अनुसार तो आप हरेक से इजहरेमोहब्बत कर रहे है और वो टाल देता है मैं एसा नही हूँ दोनों में काफी फर्क है सिर्फ़ एक को इजहार करना और उसी का ठुकरा देना सिर्फ़ अगर मगर में .. जबकि आपके में अलग भावः है .. कृपया आप समझाने की कोशिश करें..

    आभार
    अर्श

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  8. खुबसूरत गजल...

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  9. पेश करता हूँ मुबारकबाद मैँ
    आपका अत्यंत सुन्दर है ब्लाग


    आपकी की कविताएँ हैँ बेहद हसीन
    हैँ नुमाँयाँ ज़िंदगी के जिनमेँ राग

    अहमद अली बर्क़ी आज़मी

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  10. लिखता हूँ कोई ग़ज़ल होती ना मुकम्मल....सही कहा है आपने...शुरू में ऐसा होता है फ़िर सब ठीक हो जाता है...आप ऐसे ही लिखते रहिये...रदीफ़ काफिया और बहर ख़ुद बा ख़ुद समझ आने लगेगी...आपने कुछ बहुत अच्छे शेर कहें हैं...तकनिकी दृष्टि से चाहे ठीक न हों..पर भाव अच्छे हैं...बधाई स्वीकारें.
    अल्तमाश जी ने बहुत अच्छी तरह से बात समझाई है...उस पर गौर जरूर करें.
    नीरज

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  11. मैं नीरज जी से सहमत हूं

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  12. बहुत खूब.... नीचे से तीसरा शेर कमाल का बन पड़ा है "अर्श " साहब....

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  13. बहुत बढ़िया बिंदास गजल धन्यवाद.

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आपका प्रोत्साहन प्रेरणास्त्रोत की तरह है,और ये रचना पसंद आई तो खूब बिलेलान होकर दाद दें...... धन्यवाद ...