Friday, November 7, 2008

मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए...

उठे हैं जब भी ये हाँथ , तो दुआ के लिए
मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए ॥

किस तरह उनसे कहूँ के, नही है मेरा कसूर
कोई लफ़्ज़ ही नहीं है अब जुबां के लिए

कुछ तो एहतियात करो ,ऐसे ना करो तुम
मान भी जावो मेरा कहा खुदा के लिए ॥

आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

अकबर बना है "अर्श" वो जिसने किया गुनाह
कोई नही है अत्फ़ यहाँ बे-जुबां के लिए ॥

प्रकाश "अर्श"
७/११/२००८

अकबर = महान , अत्फ़ = दया ,कृपा

13 comments:

  1. किस तरह उनसे कहूँ के नही है मेरा कसूर
    कोई लफ़्ज़ ही नहीं है अब जुबां के लिए

    बहुत सुन्दर अर्श जी

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  2. आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
    अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

    " great one, each and evry line is so impressive and leave a impact after reading.."

    Regards

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  3. pehla shair hasil e ghazal hai aaapka,
    bhooot khoob

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  4. pahla aur doosraa sher badhiyaa hai,,,ye kuch khataktaa hai-"अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए" ..baaki samajh nahi aaye :)

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  5. मैं आप सभी पाठकों का हार्दिक स्वागत करता हूँ.
    ऋतेश भाई शायद आपका इशारा शायद कॉलेज के दिनों के तरफ है ..
    अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ......

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  6. आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
    अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

    क़सम से क़ायमत शे'र कहा है, वाह!

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  7. बधाई बंधुवर
    इस खूबसूरत कविता के लिये
    शुभकामनाएं

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  8. आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
    अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

    wah kya baat hai!
    aaj aap ki ghazal padhi..achcha laga--
    [ye right click disable kaisey kiya???kripya batayengey???]

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  9. अच्छी रचना है.

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आपका प्रोत्साहन प्रेरणास्त्रोत की तरह है,और ये रचना पसंद आई तो खूब बिलेलान होकर दाद दें...... धन्यवाद ...