उसको मेरी मोहब्बत का एतबार न था ।
मैं लौट आऊंगा उसे मिरा इंतज़ार न था॥
वो लौट आई है शहर में मोहब्बत लेकर
बचपन का प्यार शायद यादगार न था ॥
लिखती थी हथेली पे वो इक नाम हमेशा
देखा तो नाम मिरा वो गमगुसार न था ॥
पूछता रहा मैं हाल उसका औरों के हवाले
जिस दिन से उसके हाल पे इख्तियार न था॥
आया है वो भी देख लो चार अश्क बहा के
जिस मजार पे गया था वहां अश्कबार न था॥
आया हूँ कहीं और या हूँ अपने शहर में
पहले तो बागबां"अर्श"यूँ बे-बहार न था ॥
प्रकाश"अर्श"
१०/०१/२००९
बहुत ख़ूब. येब्बात है ! अर्श यूं गुलज़ार न था. अहा ! बढ़ चलो पढ़ चलो अर्श भाई, सुन्दर है ग़ज़ल.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद
नाम मेरा आखिरकार न था.....वाह क्या बात हाई...लिए हैं दर्द कई सीने में..खूब रही|
ReplyDeletelikhti rahti thi wo................... wah
ReplyDeleteek tarfa pyar ki kahani hai
jaise bharmai si jawani hai
hum khayalon men kho gaye aise
uske bin zindgi virani hai
swapn
jai shri krishna arsh bhai abhi main aapke blog men hi tahal raha tha, aapki rachnaon ka anand le raha tha. anand aaya. badhai.
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है........बहुत ही सुंदर ग़ज़ल लिखी आपने...सभी शेर खूबसूरत हैं.
ReplyDeleteगज़ब कर दिया भाई !
ReplyDeleteहर शे'र जानलेवा और आज नहीं तो कल उसकी जान ले ही लेगा, वैसे वह है कौन अर्श साहब?
ReplyDelete---मेरा पृष्ठ
आनंद बक्षी
एतबार, इन्तिजार, इख्तियार के अलावा बाकी के काफिये नहीं लग सकते यहां वे सारे खारिज हैं आपका काफिया 2121 का वज्न मांग रहा है । ए 2 त 1 बा 2 र 1
ReplyDeleteगुरु देव प्रणाम,
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पे आए मैं तो धन्य हुआ साथ में काफिया का वज्न सिखा भी दिया .. बहोत खूब रही आपकी ये छड़ी ...आगे से ये ध्यान रखूँगा ...
आप आए आभारी हूँ आपका स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहे यही उमीद करता हूँ...
आपका
अर्श
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ग़ज़ल
ReplyDeleteगुरु देव सुबीर जी के कथन के अनुसार अब काफिये में दोष नही है ये सारे काफिये २ १ २ १ के वज्न वाले है .... इनका मैं तहे दिल से आभार ब्यक्त करता हूँ के ये मेरे ब्लॉग पे आए और मुझे सही करने के लिए समझाया ...
ReplyDeleteआभार
अर्श
'पूछता रहा हूँ औरों से हाल उसका....
ReplyDeleteऔर--
''पहले तो बागबान अर्श..यूँ बे बहार न था!
वाह! क्या बात है!
बहुत अच्छी ग़ज़ल लिखी है .
सभी शेर तारीफ के काबिल हैं.
[पहले और तीसरे शेर में 'मेरा' के स्थान पर' मिरा'
लिखा नज़र आ रहा है. .'कृपया वर्तनी ठीक कर लें.]
वाह अर्श भाई...एकलव्य के द्वारे द्रोण के चर्ण
ReplyDeleteऔर अल्पना जी मेरे ख्याल से अर्श जी ने "मिरा" का प्रयोग वजन को बरकरार रखने के लिये किया है जो कि सही है.
और अर्श जी गुरू जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे में आप भी अवश्य हिस्सा लिजियेगा...
इस ग़ज़ल के लिए तो मुबारकबाद ले ही लो
ReplyDeleteअर्श भाई ,आदरणीय सुबीर जी ने आपके ब्लॉग पर आ कर आप की क्लास ली है .बहुत प्रिय शिष्य हो गए हो सुबीर जी के .मेरा और मिरा एक ही बात है दुसरे वाला ज्यादा उम्दा और व्याकरणीय है
अनेको मुबारकबाद
वाह वाह वाह भाई अर्ष इसी तरह लिखते रहिए। शायद आपकी ग़ज़लें पढ़क़र मीटर में हम भी आ ज़ाएं। बढ़िया ग़ज़ल।
ReplyDeleteवाह क्या खूब लिखा है आपने. आपको मेरे दिल का हाल कैसे पता? :-)
ReplyDeleteसुंदर ब्लॉग.
धन्यवाद
first time aapko read kiya
ReplyDeleteaapka likha sach mei bohut acha laga................
keep writng..................