शबे-फिराक में वो कैसी निशां छोड़ गया ।
जहाँ से वो गया मुझको वहां छोड़ गया ॥
रहेगा दिल में अखारस ये उम्र भर के लिए
जिस बेबसी से वो यूँ आस्तां छोड़ गया ॥
चली जो दर्द की आंधी गर्दो-गुबार लेकर
बुझी-बुझी से राख में वो धुंआ छोड़ गया ॥
मुझे रोता, तड़पता. छटपटाता देखकर
किया एहसान मुझे मेरे मकां छोड़ गया ॥
बैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बों के लिए
कहाँ है वैसा मौसम जो समां छोड़ गया ॥
वो मिला जीने का मकसद मिला था मुझे
वो गया"अर्श"फ़िर अहले-जुबां छोड़ गया ॥
प्रकाश "अर्श"
११/१२/२००८
बैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बे के लिए
ReplyDeleteकहाँ है वैसा मौसम जो समां छोड़ गया ॥
वो मिला जीने का मकसद मिला था मुझे
वो गया"अर्श"फ़िर अहले-जुबां छोड़ गया ॥
waah bahut khub
छोड़ गया, छोड़ गया कह रहे हो और अस्ल में सब कुछ पकड़्ते जा रहे हो है ना ? ऎ मेरे बदमाश प्यारे भाई अर्श, इतना बेहतरीन लिखोगे तो नज़र लगेगी पगले और सबसे पहले अपने इसी बिग ब्रदर की. हा हा. अर्श बहुत सुन्दर कह रहे हो. ग्रामर की रही सही गुन्जाइश को भी ख़त्म कर दो भाई, तुम में गट्स हैं इस बात के. विनय है ना विनय प्रजापति उनसे दोस्ती करो. वो निश्चित इस दिशा में तुम्हारी मदद करेंगे. सदा तुम्हारे साथ.
ReplyDeletevaah vaah bhaai vaah
ReplyDeleteबहुत उम्दा गजल है।बधाई।
ReplyDeleteबैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बे के लिए
कहाँ है वैसा मौसम जो समां छोड़ गया ॥
बहुत ख़ूब रही पेशकश!
ReplyDelete-------------
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चली जो दर्द की आंधी....बैठा हूँ दर्द की बस्ती में......वाह!वाह!
ReplyDeleteबहुत खूब! बहुत ही खूबसूरत शेर हैं...उम्दा ग़ज़ल!
सुंदर सुंदर सुंदर भाई वाह भाई वाह
ReplyDelete" very beautifully expressed, with emotional words"
ReplyDeleteregards
बढ़िया गज़ल है अर्श.... खासकर अंत के दो शेर। तुम्हारी गज़लें बेहद उम्दा होती हैं।
ReplyDeleteवो गया अर्श अहले जुबान छोड़ गया ......
ReplyDeleteक्या बात है ,आखिरी शेर फ़िर खूब !
वाह..!!! बहुत खूब, बहुत अच्छा...!!! सभी शेर अच्छे हैं..!!! आपक उर्दू शब्द-भण्डार काफी तगड़ा है, लेकिन मुझे मक़ते का आखिरी मिसरा समझ नहीं आया... "फ़िर अहले-जुबां छोड़ गया"... जहाँ तक मेरा ख़याल है, शायद आप का कथ्य ये है कि उसके रहते आप मूक थे, उसके जाने के बाद आप फ़िर से वाचाल हो गए ... क्यूंकि अहले-जुबां का मतलब "जुबां वाले" होता है शायद... मार्गदर्शन करेंगे...!!!
ReplyDelete@ अर्श, बवाल जी तो वबाल हैं, उन्होंने कही तो मैंने सुनी कहो तो एक साइट बना दूँ जिसमें पहल मिसरा मैं और दूसरा तुम लिखो या पहला तुम लिखो दूसरा मैं लिखता हूँ... मैंने पहले तो उनका कॉमेंट पढ़ा नहीं पर तुम बताओ कि क्या करना चाहिए!
ReplyDeleteबढ़िया गजल प्रस्तुति के अर्श जी बधाई .
ReplyDelete@क्षितीश, चलो भई इसे ऐसे समझो, यह अर्श की नहीं मेरी खोपड़ी की उपज है, आख़िरी शे'र का मिसरा तो समझ आया ही होगा तो सानी का मतलब होना चाहिए 'वह गया अर्श' फिर अहले-ज़ुबाँ छोड़ गया' "मानी अहले-ज़ुबाँ : तरह-तरह की बात करने वाले!"
ReplyDelete@अर्श, "कैसी निशाँ : कैसे निशाँ"!
बहुत ही गहरे भाव लिये है आप के यह शेर, बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeletehamesha ki tarhaan bahut hi pyara ehesaas ,......
ReplyDeleteबधाई हो अर्श भाई इस सुंदर गज़ल पर...खास कर आखिरी दोनों शेर कहर ढ़ा रहे हैं
ReplyDeleteबैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बे के लिए...........अच्छा ख्याल है... .ये बैठना जानबूझकर है ??
ReplyDeleteसारे शेर गहरी बातें मजे मजे में कह गए , बहुत खूब |
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