बन जाए अगर आदमी आदमी सा ।
के फितरत नहीं आदमी आदमी सा ॥
ना आंसू बहेंगे आंखों से किसी के
गर काटे कोई आदमी आदमी सा ॥
दीवाना हुआ है वो पागल भी मानों
दिखा है कोई आदमी आदमी सा ॥
कहे क्या कोई अब फ़साना ग़मों का
हँसेंगे सभी कह आदमी आदमी सा ॥
हंसीं खेल में तबाह ना कर किसी को
दिल तेरा भी है आदमी आदमी सा ॥
दिखे है मुझे अब विरानियाँ शहर में
क्या है गाँव में आदमी आदमी सा ॥
मुल्कों में ना होगी यूँ सरहद की बातें
बन जाए अगर आदमी आदमी सा ॥
वो कौन है जो कोने में सिसक रहा है
पूछो हाल"अर्श" आदमी आदमी सा ॥
प्रकाश"अर्श"
१३/१२/२००८
बहुत खूब अर्श जी....अच्छी ग़ज़ल,,,
ReplyDeleteनीरज
bahut hi accha likha hai........
ReplyDeletedobarase ek nayab gazal....aapko bhi bahut bahut badhaiyaan
बहुत ही सुंदर लगी आप की यह कविता.
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बढ़िया कविता. प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteभाव तो अच्छे हैं,मगर मैं इन्हें गज़ल नहीं कहूँगा अर्श जी
ReplyDeleteमुल्कों न होंगी यू सरहद की बातें
ReplyDeleteबन जाए अगर आदमी आदमी सा
बहुत ही बढिया बात कही है अर्शजी आपने ।
मेरी ओर से बधाइयां ।
मुल्कों में ना होगी यूँ सरहद की बातें
ReplyDeleteबन जाए अगर आदमी आदमी सा ॥
वो कौन है जो कोने में सिसक रहा है
पूछो हाल"अर्श" आदमी आदमी सा ॥
waah kya baat hai aur sahi bhi,bahut khub.
bhaiya aap bahut hi achha likhte hain... bas isse zyada to main or kya kahun....
ReplyDeletelikhte rahiye... keep it up..!!
रचना में भाव अच्छे हैं ,सामयिक भी है.
ReplyDeleteबहुत ही बढि़या लिखा है आपने...आपको ढेरों बधाइयाँ :-)
ReplyDeleteगौतम जी आप इसे गैरमुसलसल ग़ज़ल कह सकते है ....
ReplyDeleteअर्श
जीवन की िविवध िस्थितयों को सुंदरता से शब्दबद्ध किया है । अच्छा िलखा है आपने । भाव और िवचारों का अच्छा समन्वय है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और प्रितिक्रया भी दें-
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
गैर मुसलसल गज़ल का तात्पर्य नहीं समझ पाया मैं अर्श जी.मेरी बातों को अन्यथा नहीं लिजियेगा.मैं तो सीखने की प्रक्रिया में हूँ.आपकी गज़लों से भी सीख रहा हूँ.जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है "गज़ले मुसलसल" से तात्पर्य उस गज़ल से होता है जिस गज़ल के तमाम शेर एक ही विषय को सम्बोधित करते हैं.जैसे गीत या नज़्म...
ReplyDeleteकृपया रौशनी डालें.मैं उलझन में पड़ गया हूँ
गहरी एवं प्रशंसनीय मनोभिव्यक्ति पर बधाई!
ReplyDeleteगौतम जी इसमे उलझन वाली कोई बात नही है गैर मुसलसल से तात्पर्य ये है के इसमे शे'र अलग अलग विषय से सम्बन्ध रखता है और पुरी की पुरी शे'र में बात को संतुष्टि दी जाती है ..
ReplyDeleteजहाँ तक सिखाने की बात है तो अभी मैं भी उसी राह पे हूँ.. जो ताउम्र चलती रहेगी ..
आपका
अर्श
अर्श साहब,
ReplyDeleteग़ज़ल में हर शेर independent ही होता है। अपने आप में पूरा।
मेरे ख़याल से गौतम बहर की बात कर रहे थे।
हम सभी सीखने की राह में हैं।
दिखे है मुझे अब विरानियाँ शहर में
ReplyDeleteक्या है गाँव में आदमी आदमी सा ॥
मुल्कों में ना होगी यूँ सरहद की बातें
बन जाए अगर आदमी आदमी सा ॥
देर से आने के लिए मुआफी दोस्त.....आज पहली बार तुम्हारे दो शेर जो खास पसंद आए ,शुक्र है वे आखिरी नही है.....वरना तुम्हारी गजल के आखिरी शेर ही मुझे खास पसंद आते है....