सर्दी अपने शबाब पर है , मगर तरही कि सरगर्मी भी खूब जोर पर है ... ये दोनों ही अपने अपने जगह मुकम्मल हैं॥ इन दो कुदरती हसीन और जहीन चीजों के बीच ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ ... आप सबी के प्यार के लिए गूरू जी के आशीर्वाद के बाद ... ग़ज़ल का तीसरा शे'र गूरू जी ने दिए हैं...
ग़मों से दूर जाना चाहता हूँ
मैं फ़िर से मुस्कुराना चाहता हूँ ॥
मैं बच्चा बन के मां की गोद से फ़िर
लिपट के खिलखिलाना चाहता हूँ ॥
पिता ही धर्म हैं ईमां हैं मेरे
वहीं बस सर झुकाना चाहता हूँ ॥
जहां कोई खड़ा है राह ताकता
वहीं फ़िर लौट जाना चाहता हूँ ॥
सुना है रूठ कर सुन्दर लगे है
उसे गुस्सा दिलाना चाहता हूँ ॥
लहू का रंग मेरा इश्क जैसा
मैं साँसे शाईराना चाहता हूँ
ग़ज़ल होती नहीं बस वो मुकम्मल
जिसे उसको सुनाना चाहता हूँ ॥
अर्श