Saturday, November 6, 2010

खीचूँ लकीरें जैसी भी बन जाती हैं तस्वीर सी !

दीपावली की असीम शुभकामनाओं के साथ,आप सब के सामने फिर से हाज़िर हूँ, एक नई ग़ज़ल के साथ जो हाल ही में गुरूकुल में तरही के लिए लिखी गई थी ! बगैर कुछ ज्यादा भूमिका बनाये सीधे ग़ज़ल के पास चलते हैं ... मिसरा-ए-तरह ... जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रौशनी

आँखों से मैं कहने लगा , आँखों से वो सुनने लगी !
कैसा है ये लहजा , इसी को कहते हैं क्या आशिकी !!

क़ाबिज हुआ चेहरा तेरा कुछ इस तरह से जह्न में,
खीचूँ लकीरें जैसी भी बन जाती हैं तस्वीर सी !!

जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रौशनी ,
बस इस दुआ में हाथ ये उट्ठे हैं रहते हर घडी !

आहों में तुम, सांसों में तुम , नींदों में तुम,ख़्वाबों में तुम ,
कैसे रहूँ तेरे बिना तू ही बता ऐ ज़िंदगी !!

तौबा वो तेरी भूल से कल जुगनुओं में खौफ था ,
तू जिस तरह से चाँद को जुल्फों में ढक कर सो गई !!

कैसे कहूँ इस प्यास का रिश्ता नहीं तुझ से भला ,
पाऊं तुझे तो और भी बढ़ जाती है ये तिश्नगी !!

वो चाह कर भी रोक ना पायेगी अपनी ज़ुल्फ़ से ,
जब ले उडेंगी इस तरफ खुश्बू हवाएं सरफिरी !!

क्यूँ तंग नज़रों से मुझे वो देखती है बारहां ,
ऐसी अदा पे आज मैं कह दूँ उसे क्या चोरनी !!

आया न कर तन्हाई में यूँ छम तू ऐ दिलरुबा ,
ये जान लेकर जाएगी एक दिन तेरी ये दिल्लगी !!


अर्श