Sunday, November 30, 2008

किस्मत में मेरे चैन से जीना लिखा दे ...

वेसे तो मैं मुसलसल ग़ज़ल ही लिखने की कोशिश करता हूँ ,मगर एक गैर मुसलसल ग़ज़ल आप सबों के सामने पेश कर रहा हूँ उम्मीद करता हूँ पसंद आए........


किस्मत में मेरे , चैन से जीना लिख दे ।
दोजख भी कुबूल हो,मक्का-मदीना लिख दे ॥

जहाँ दहशत जदा हैं लोग,चलने से गोलियां ।
हर गोलिओं के नाम , मेरा सीना लिख दे ॥

मेहनत किए बगैर ,बद अंजाम से डरता हूँ ।
कुछ काम कर सकूँ,वो खून-पसीना लिख दे ॥

वो शान है उनकी ताज पे,गोरों के महफ़िल में ।
कभी शर्म आ जाए ,तो वो नगीना लिख दे ॥

जितना वो पिसेगी ,चढेगा उतना उसका रंग ।
मोहब्बत का नाम ,कोई संगे - हिना लिख दे ॥

दिखे है तेरा अक्स ,हर टुकड़े में यहाँ "अर्श"
टुटा था ,वो दिल था ,तू आइना लिख दे ॥

प्रकाश "अर्श"
३०/११/२००८
चौथा शे'र भारत के कोहिनूर हीरे के बारे में कहा गया है जो इंग्लॅण्ड के महारानी के ताज पे सुशोभित है ॥

Thursday, November 27, 2008

आज घर के एक कोने में बिखरा पड़ा हूँ मैं ....

हुई है ज़िन्दगी मेहरबान लो आबला दिया ।
मोहब्बत में हमें इनाम उसने गिला दिया ॥

आज घर के एक कोने में, बिखरा पड़ा हूँ मैं ।
यही किस्मत थी हमारी, यही सिला दिया ॥

कहती थी के करती है,मुझे टूट के मोहब्बत।
आई जो मेरे पास तो, मुझे इब्तिला दिया ॥

कभी फुरकत की बात पे,कहा चुप करो जी तुम ।
जाने लगी तो उम्र भर ,का फासिला दिया ॥

सी - सी के पहन लूँगा, वही चाके - कफ़न मैं ।
जिस नाज़ से"अर्श"तुने खाक में मिला दिया ॥

प्रकाश "अर्श"
२७/११/१००८

इब्तिला =पीडा,कष्ट । आबला =छाला

Sunday, November 23, 2008

इक हर्फ़ में हमने अपनी जिंदगानी लिख दी ...

इक हर्फ़ में हमने अपनी जिंदगानी लिख दी ।
हाय तौबा, हुआ फ़िर जो नादानी लिख दी ॥

वो समंदर है उसको इस बात का क्या ग़म ,
आंखों से जो बह निकले ,पानी- पानी लिख दी ॥

था कच्ची उमर का मगर था मजबूत इरादा ,
लहू के रंग से नाम उनकी आसमानी लिख दी ॥

नवाजा था उसने, के जाहिल हूँ ,मैं जालिम हूँ
मोहब्बत का करम था हमने मेहरबानी लिख दी ॥

हुई जो चर्चा अपनी मौत की ,जनाजे से दफ़न तक ,
किया था कत्ल ,मगर वक्त पे कुर्बानी लिख दी ॥

रहने दो, इत्मिनान से अब ऐ मेरे रकीबों ,
कुछ नही है मेरे पास,"अर्श"को जवानी लिख दी ॥

प्रकाश "अर्श"
२३/११/२००८

Saturday, November 22, 2008

चल लौट चलें "अर्श" वहीँ अपने अब्तर में .....

ये कहाँ आ गया हूँ मैं , दीवानों के शहर में ।
हर वक्त खटकता हूँ यहाँ सबके नज़र में ॥

लिखता हूँ गर कोई ग़ज़ल होती न मुक्कमल ,
होती है ग़लत रदीफ़,काफिये में बहर में ॥

सब है अपनी धुन में, मतलब ही नही किसी को ,
कैसा है यहाँ चलो-चलन अपने -अपने घर में ॥

किया जो इज़हारे मोहब्बत, मैंने किसी से ,
टाला है वहीँ ,उसी ने ,बस अगर-मगर में ॥

होती हो तिजारत अगर मोहब्बत पे मोहब्बत ,
मैं भी खड़ा हासिये पे यहाँ सिम-ओ-जर में ॥

नही करनी मोहब्बत मुझे, न होगी ये मुझसे ,
चल लौट चले "अर्श"वही अपने अब्तर में ॥

प्रकाश "अर्श"
२१/११/२००८

अब्तर =मूल्यहीन,

Thursday, November 20, 2008

तेरे दिल से मेरे दिल का रिश्ता क्या ...

तेरे दिल से ,मेरे दिल का रिश्ता क्या ।
तू मिलती, ना मैं मिलता, फ़िर मिलता क्या ॥

सोंच रहा ,क्यूँ तेरा ऐसे नाम लिया ,
याद है अब भी भूलता फ़िर तो भूलता क्या ॥

वो फलक जो दूर तलक जा मिलता है ,
जाता मैं तो वो वहां फ़िर मिलता क्या ॥

याद है आब भी तेरी सांसों की गर्माहट ,
राख हुआ था जलने को अब जलता क्या

वर्षो पहले एक चमन होता था अपना ,
एक भी फुल अब "अर्श"वहां है खिलता क्या ॥

प्रकाश "अर्श"
२०/११/२००८

Sunday, November 16, 2008

हाजीरी लगाई मैंने फ़िर इकरार कर लिया ..

उनसे नज़र हमने, इस तरह मिला लिया ।
हाय अल्लाह क्या कर दिया, ये क्या कर लिया ॥

आई जो बात ,अपनी मोहब्बत की अस्हाब ,
उसने ना कोई दिल लिया, न कोई जिगर लिया ॥

देखा था, इस अंदाज़ से उसने मेरी तरफ़ ,
रहमत खुदाया तेरा था के तीरे-जिगर लिया ॥

लोगों ने पूछा जब ,मुन्सफी में उसका नाम ,
आशुफ्ता खुदा का नाम हमने उधर लिया ॥

रोका जब उस तरफ़ से, रास्तों ने मेरा हाथ ,
हाजीरी लगाई मैंने, फ़िर इकरार कर लिया ॥

मुझको भी अब बता दो दीवानों के अस्मशान ,
ख़ुद ही कब्र खोद लिया" अर्श" ख़ुद ही गुजर लिया ॥


प्रकाश "अर्श"
१६/११/२००८
अस्हाब =स्वामी ,मालिक,
आशुफ्ता =घबराहट में ,

Saturday, November 15, 2008

उनको नायाब देखा है ....

इक अजीब खाब देखा है
उनको नायाब देखा है

बड़ी मुश्किल में हूँ ,
ये क्या जनाब देखा है ,

वहीँ छलके है फकत ,
उम्दा शराब देखा है

मुझे भी मिलेगा
क्या
,वो अजाब देखा है

उनके जमाले रुख पे ,
कैसा आफताब देखा है

अर्श डूब गया हूँ मगर,
ताब को ताब देखा है


प्रकाश "अर्श"
१५/११/२००८

Thursday, November 13, 2008

सुना है इश्क में नज़रें जुबान होती है ...

उनकी हर लफ्ज़ में मोहब्बत जवान होती है ।
वो होती है, तो महफ़िल में जान होती है ॥

उनके आँचल के तले नींद में उन्घी सी ख्वाब
जागती है, तो मुक्कमल सयान होती है ॥

है वो मुमताज़ की जागीर ,मगर सोंचों तो सही
उनकी चर्चे भी ,ताजमहल की शान होती है ॥

वो भी चुप है ,मैं भी कुछ कह नही पाता
सूना है ,इश्क में नज़रें जुबान होती है ॥

वो सोंच ले ,जो फकत उंगली उठाना जानते है
उनकी अपनी भी तो"अर्श" गिरेबान होती है


प्रकाश "अर्श"
१३/११/२००८

करता है फ़िर गुनाह क्यू रब भी कभी कभी ..

आती है उनकी याद अब भी कभी कभी ।
मिलता हूँ अपने आप से जब भी कभी कभी ॥

रहती थी ,परेशान वो, चेहरा छुपाने में
उतारता था जब नकाब सब भी कभी कभी ।

आई न, नींद उम्र भर इसी, इंतजार में
लगता है आ रही है वो अब भी कभी कभी ॥

लिखता था ख़ुद जवाब, मैं अपने सवाल का
देती न थी, जवाब वो तब भी कभी कभी ॥

हमने क्या बिगाडा "अर्श" के हम बिछड़ गए
करता है फ़िर गुनाह क्यूँ रब भी कभी कभी ॥

प्रकाश "अर्श"
१३/११/२००८

Monday, November 10, 2008

ग़म, आंसू , दर्द .....

ग़म , आंसू , दर्द

यही सारे है

हमदर्द मेरे ।

मिले हैं मुफ्त तो

मुझको

सस्ती - सस्ती तन्हाई

मेरा खजाना तुम गर पूछो

बस उम्र- भर

की

बेवफाई




प्रकाश "अर्श "
१०/११/२००८

Sunday, November 9, 2008

नहीं सियाह तो समंदर पे हुकूमत होगी ....

नहीं सियाह तो समंदर पे हुकूमत होगी ।
मिलेगी वो मुझे अगर मेरी किस्मत होगी ॥

अभी से हार के क्यूँ बैठ जायें खुदा से ,
मिलेंगे लोग वही जब दोजख जन्नत होगी ॥

बहोत कठिन है, यकीनन ये राहे -मोहब्बत ,
करेंगे पार, अगर हौसला हिम्मत होगी ॥

नहीं हैं सीरी -फ़रहाद ,कैस से बड़े हम
मिलेगी हमको भी उकुबत जो उकुबत होगी ॥

वज्म में आना तुम भी, ओ मेरे रकीबों
करेगा "अर्श" खिदमत जो खिदमत होगी ॥


प्रकाश "अर्श"
९/११/२००८

खुदा = मोहब्बत के ठेकेदार, उकुबत = सज़ा ,
खिदमत = सेवा ,आवभगत । बज्म = सभा ,
कैस = मजनू ,रकीब = दुश्मन .................,

Friday, November 7, 2008

मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए...

उठे हैं जब भी ये हाँथ , तो दुआ के लिए
मुझको मुज़रिम न बनावो खुदा के लिए ॥

किस तरह उनसे कहूँ के, नही है मेरा कसूर
कोई लफ़्ज़ ही नहीं है अब जुबां के लिए

कुछ तो एहतियात करो ,ऐसे ना करो तुम
मान भी जावो मेरा कहा खुदा के लिए ॥

आए नही हो तुम ,जब भी किया वादा
अच्छा था इंतजार वो तजुर्बा के लिए ॥

अकबर बना है "अर्श" वो जिसने किया गुनाह
कोई नही है अत्फ़ यहाँ बे-जुबां के लिए ॥

प्रकाश "अर्श"
७/११/२००८

अकबर = महान , अत्फ़ = दया ,कृपा

Wednesday, November 5, 2008

देखो अब ज़माना भी तेरे मेरे साथ है ...

की जो किसी ने, मुझसे मेरे जिक्र-हयात की ।
आया जुबां पे, नाम तेरा तौबा ज़मात की ॥

महफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
कैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥

आया वो, आके लौट गया मेरे गोर से
मुश्त-ऐ-खाक डाल न सका, रवायत की ॥

देखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥

एक ही खंज़र है "अर्श"दोनों के सिने में
लोगों ने मुन्शफी की, है ये हादिसात की ॥

प्रकाश "अर्श"
५/११/२००८
जिक्र -हयात =जिंदगी की चर्चा
ज़मात=इकठी भीड़ ,मुन्शफी =फैसला
मुस्त-ऐ-खाक =एक मुठी मिटटी ,
हादिसात = दुर्घटना ॥ गोर= कब्र

Sunday, November 2, 2008

अपने ही घर में आए है हम मेहमान की तरह.....

अपने ही घर में आए हैं हम मेहमान की तरह ।
हमसे भी पूछा हाल-ऐ-दिल अंजान की तरह ॥

सबको लगाया उसने गले जी बड़े तपाक से ,
हमसे मिलाया हाथ भी तो मेहरबान की तरह ॥

ऐसी बेकली तो कभी जिन्दां में भी ना हो ,
जिन्दां में हूँ जिन्दा तो बस अह्जान की तरह ॥

चिलमन के उस तरफ़ से जो देखा था एकबार ,
शायद दिखा रहे थे हम भी नादान की तरह ॥

हमको निकाल देते "अर्श" गर बे-तमीज थे ,
हमको बुलाया है तो मिलो इंसान की तरह॥


प्रकाश "अर्श'
२/११/२००८

जिन्दां= कारागार ,बंदीगृह ॥ अह्जान = दुःख से ॥

Saturday, November 1, 2008

तेरा मिलना मुझसे कहना काश के आप हमारे होते

कितनी अच्छी, बात ये होती, तुम जो गर हमारे होते ।
हुस्न भी होता, इश्क भी होता, सूरज चाँद सितारे होते ॥

तेरी बातें ,तेरा हँसना, तेरी वो खामोश ईशारे
तेरा आना ,तेरा जाना ,मैं तेरा तुम हमारे होते ॥

मेरी धड़कन, मेरी सांसे, मेरी हर एक आह तुम्हारी
तेरा मिलना, मुझसे कहना, काश के आप हमारे होते ॥

थोडी सी घबडाहट होती, थोड़ा सा शर्माना होता
तेरी तरफ़ जो देखता मैं फ़िर आँचल के वो किनारे होते ॥

तेरी आंखों के मैखाने ,तेरे होंठों के प्याले से "अर्श "
होश में हूँ बस ये कह लेता, होश कहाँ हमारे होते ॥

प्रकाश "अर्श"
१/११/२००८