Tuesday, October 25, 2011

मैं जानूँ या तू जानें...


सबसे पहले तो आप सभी को दीपावली की ढेरो शुभकामनाएं ! दीपावली के इस ख़ास पर्व पर चालिये सुनाता हूँ , एक ग़ज़ल ! उसी वादे के साथ की बह'रे ख़फ़ीफ़ से अलग किसी बह'र पर नई ग़ज़ल आपको सुनाउंगा ! तो चलिये सुनते हैं ऐसी ही एक ग़ज़ल ...
शुभ दीपावली

हम दोनों का रिश्ता ऐसा, मैं जानूँ या तू जानें!

थोडा खट्टा- थोडा मीठा, मै जानूँ या तू जानें !!


सुख दुख दोनों के साझे हैं फिर तक्‍सीम की बातें क्‍यों,

क्या -क्या हिस्से में आयेगा मैं जानूँ या तू जानें!!


किसको मैं मुज़रिम ठहराउँ, किसपे तू इल्ज़ाम धरे,

दिल दोनों का कैसे टूटा मैं जानूँ या तू जानें!!


धूप का तेवर क्यूं बदला है , सूरज क्यूं कुम्हलाया है ,

तू ने हंस के क्या कह डाला , मैं जानूँ या तू जानें!!


दुनिया इन्द्र्धनुष के जैसी रिश्तों मे पल भर का रंग,

कितना कच्चा कितना पक्का मैं जानूँ या तू जानें!!


इक मुद्दत से दीवाने हैं हम दोनों एक दूजे के ,

मैं तेरा हूँ तू है मेरा , मैं जानूँ या तू जानें!!


आप सभी का

अर्श

Thursday, September 15, 2011

नींद से कुछ लिया दिया होगा ...

वाकई बहुत दिन गुज़र गए ! एक लम्बे समय के बाद फिर से चलिए नई ग़ज़ल के साथ, आप सभी के पास हाज़िर हूँ! हालांकि ग़ज़ल तो पूरानी है, मगर आप सभी के सामने पहली बार आ रही है ... बह'र वही फिलहाल ख़फ़ीफ है इस बार भी ... कुछ ज़्यादा भूमिका नहीं बनाते हुये हाज़िर करता हूँ... इस ग़ज़ल को ... क्यूंकि सफर है, तो चलना है ,और चलने का नाम ज़िन्दगी है !



नाम ज्यूं ही मेरा सुना होगा !
उसने पर्दा गिरा दिया होगा !!

मैं तो ख़ुद जी रहा था टुकडों में,
ख़्वाब टुकडों में पल रहा होगा !!

ज़िक्र मेरा वो सुन के देर तलक ,
पागलों की तरह हंसा होगा !!

अपनी कारीगरी से बादल ने ,
तेरा चेहरा बना दिया होगा !!

मांग बैठा था कुछ ज़ियादा वो
इसलिये कुछ नहीं मिला होगा !!

भूख से रात हो गई लम्बी ,
दिन भी अब मुश्किलों भरा होगा !!

उसकी चाहत भी तो ज़रूरी है ,
बस मेरे चाहने से क्या होगा !!

फिर समन्दर की चाहतें लेकर,
चाँद आँखों में आ गया होगा !!

आँख ने ख़्वाब की तिज़ारत में,
नींद से कुछ लिय दिया होगा !!



अर्श






Saturday, April 23, 2011

उम्र का ये पड़ाव कैसा है !

नमस्कार आप सभी को , देरी के लिए मुआफी भी चाहूँगा ! कुछ ऐसी मसरूफियत जिसकी कोई परिभाषा नहीं दी जा सकती ! और इसी वजह से ग़ज़ल को आप सभी तक लाने में देर हुई ! चलिए एक पुरानी ग़ज़ल आप सभी को सुनाता हूँ ! बह'र वही खफिफ़ .......इधर हाल ही में सीहोर जाना हुआ और पूरे गुरुकुल का जमावड़ा रहा ! बहुत मज़ा आया ! अगली बार फिर से एक नई ग़ज़ल के साथ हाज़िर होने के वादे के साथ ...



उम्र का ये पड़ाव कैसा है !
ख्वाहिशों का अलाव कैसा है !!

हसरतें टूट कर बिखर जाये ,
काइदों का दबाव कैसा है !!

जो कभी सूख ही नहीं पाता,
ये मेरे दिल पे घाव कैसा है !!

मैं उलझ कर फंसा रहा जिनमें,
इन लटों का घुमाव कैसा है !!

जिसको देखो बहा ही जाता है,
इस नदी का बहाव कैसा है!!

बेमज़ा जिंदगी है इसके बिन,
तेरे ग़म से लगाव कैसा है!!

कर चुके दफ़्न अर्श ख्‍वाबों को
फिर ये जीने का चाव कैसा है!!


अर्श

Saturday, January 1, 2011

स्वर्णिम घड़ी का साक्षी


नव वर्ष की मंगल कामनाएं !

उंगलियाँ सूज गई हैं और बेतरतीब सी गर्मी है यहाँ पर अर्श , यही कहा था आपने मुझे ... उस क्षण से लेकर अभी तक का लंबा सफ़र ! ये सोचता भी हूँ तो एक गहरी सांस लेता हूँ ! बात हो रही है मित्रों ये वो सहर तो नहीं उपन्यास को लिखने की शुरुयात से लेकर उसके नव लेखन के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने तक के सफ़र का !
साल ने जाते जाते एक ऐसी ख़ुशी दी जिस ख़ुशी की सूचना जब उन्हें दी गई तो आँखें डबडबा गईं थी, और एक ऐसी ऊर्जा पूरे बदन में दौड़ी थी की उस की झनझनाहट पूरे शहर को एक नयी सहर में तब्दील कर दी थी! इस उपन्यास के बारे में मैं अदना क्या कहूँ जब इसके बारे में डा.नामवर सिंह,
चित्रा दी , रविन्द्र कालिया जी जैसे गुणी और देश के चोटी के लेखक प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे ! डा. नामवर सिंह जी ने जहाँ दूरदर्शिता की बात की पुराने कहानीकारों के कहानियों से उपन्यास जैसे एक ऐसा माध्यम को चुनना इतनी कम उम्र में और खुद को साबित कर देना कि अब का साहित्यकार मैं हूँ ! ऐसे शब्द सुनने के बाद कौन खुद पर गर्व नहीं करेगा ! जब चित्रा दी ने दो युगों को एक साथ तुलनात्मक वर्णन करने की नई परम्परा को जन्म देने वाला कहा वहीँ रविन्द्र कालिया जी कुछ भी न कह पाने की स्थिति में थे क्यूंकि शब्द कम पड़ गए !
अहा क्या शाम थी, और मैं खुद को भी बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूँ, की मैं इस अविश्मरनिया पल का हिस्सा बना !२८ की देर रात २ बजे पहुंचे घर पर , ठण्ड ऐसी थी की हड्डियों में छेद हो जाए! सुबह तैयार होकर शार्दूला दी से मिलने गए नजदीक ही रहती हैं वो, मै यहाँ दुर्भाग्य से जा न सका और मिलने का मौक़ा गवां दिया! प्रगति मैदान के वी आइ पी लाउन्ज में पहले से ही सुलभ पहुँच चुका था , मैं भी पहुंचा फिर कॉफी पीने गए हम, कार्यक्रम शुरू होने के तुरंत पहले
एक ऐसे शख्स से मिला जो आज के समय का सबसे पसंदीदा शायर हैं मेरे जनाब आलोक श्रीवास्तव अपनी दोस्ती निभाने आये गुरु जी के लिए ! वाह क्या मित्रता है सच में दोनों का मिलना ऐसा था, कि उनकी मित्रता की कसमें खाई जा सकती हैं ! और गुरु जी के कहने पर कि अरे तुम इतनी व्यस्तता में कैसे आये के जवाब में आलोक जी का कहना की आप मेरे सम्मान समारोह में ४० किलो मीटर चल कर आ सकते हैं, तो मैं तो यही रहता हूँ ... वाह क्या मित्र है !
सच में आज के समय में बहुत कम देखने को मिलता है ! कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद सीधे नई दिल्ली स्टेशन के पास गए क्यूंकि दूसरे दिन के अहले सुबह उन्हें वापसी करनी थी, इसलिए एक होटल में कमरा बुक किया और फिर तैयार हो गए समीर लाल जी के सपुत्र की शादी में जाने के लिए ! गुरु जी ऐसे तैयार हुए की हम जैसे नवजवान देखकर रश्क करें , इस उम्र में ये कमाल, कि कोई नव युवती मेरे तरफ तो किसी भी सूरत में न देखे उनके साथ रहने पर, और हुआ भी यही शादी में मैं तो यही देख रहा था,कि कितनी उन्हें देख रही हैं ! वाकई बहुत हैण्डसम गुरु जी लग रहे थे ! :) समीर लाल जी के यहाँ सभी
से मुलाक़ात हुई अनुराग जी (स्मार्ट इंडियन), राजीव तनेजा ,और अपने गुरु कुल के ही श्री दिगंबर नसवा जी और उनकी धर्म पत्नी जी से , ये दोनों वाकई बहुत भद्र हैं, फिर मुलाकात हुई श्री कुंवर बेचैन साब से ! इन सभी चमत्कृत मुलाकातों के बाद भोजन का आनंद लिया गया जिस में गुरु जी की पसंदीदा कुल्फी और मेरा जलेबी के साथ राबड़ी उफ्फ्फ्फ़ मजा आ गया ! विदा होने के बाद फिर वापस स्टेशन लौट आये हम सभी चूँकि मेरी तबियत अन्दर से बहुत खराब हो रही थी कारन की पिछले चार रातों से ठीक से सोया नहीं था !
सुलभ के साथ गुरु जी को होटल छोड़ मैं भरी मन से घर की तरफ चला जैसे जैसे मैं कोहरे में होता गया पुराना साल भी ख़त्म होने के लिए अलविदा कह रहा था ! जाते जाते ऐसी ख़ुशी दे गया यह साल जो स्मृति पटल पर हमेशा हमेशा के लिए ज़िंदा रहेगा !
उसी साल में अपने सबसे चहेते शाईर डा . बशीर बद्र , जनाब बेकल उत्साही ,जनाब राहत इन्दौरी ,नुसरत दी ,आज के सबसे चर्चित कवि कुमार विश्वास , कवि सम्राट राकेश खंडेल वाल , श्री नारायण कसाट, कुंवर बेचैन साब और फिर आखिर में समीर लाल जी से मुलाक़ात ... अब तो अपनी खुशनसीबी पर भी रश्क ना करूँ तो क्या करूँ ... सच उस साल एक भी कमाल की ग़ज़ल ना कह पाने का जो दुःख था मेरे मन में वो इन सभी से मिलकर इतनी ख़ुशी में बीता कि क्या कहूँ ! सलाम करता हूँ उस साल को ... बधाई देता हूँ आप सभी को इस नए साल की और अपने पूरे गुरु कुल को भी !

अर्श