Wednesday, November 5, 2008

देखो अब ज़माना भी तेरे मेरे साथ है ...

की जो किसी ने, मुझसे मेरे जिक्र-हयात की ।
आया जुबां पे, नाम तेरा तौबा ज़मात की ॥

महफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
कैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥

आया वो, आके लौट गया मेरे गोर से
मुश्त-ऐ-खाक डाल न सका, रवायत की ॥

देखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥

एक ही खंज़र है "अर्श"दोनों के सिने में
लोगों ने मुन्शफी की, है ये हादिसात की ॥

प्रकाश "अर्श"
५/११/२००८
जिक्र -हयात =जिंदगी की चर्चा
ज़मात=इकठी भीड़ ,मुन्शफी =फैसला
मुस्त-ऐ-खाक =एक मुठी मिटटी ,
हादिसात = दुर्घटना ॥ गोर= कब्र

8 comments:

  1. wah saahab dino-din aapki shayir rang nikharata ja raha hai...

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  2. बहुत खूब-
    देखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
    इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥

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  3. वाह, बहुत उम्दा!!

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  4. महफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
    कैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥
    " wah wah wah, pehlee mulakat to vaise bhee nahe bhulaee jatee ek ajeeb hee kashish hotee hai..."

    Regards

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  5. सुभानाल्लाह आखिरी शेर कातिलाना है....

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  6. वाहवा बंधुवर, क्या बात है, बधाई...

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  7. waah alfazn mein jazbaat behte hai,bahut shandar

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  8. एक ही खंजर है....

    वाह! बहुत ही उम्दा शेर !

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