की जो किसी ने, मुझसे मेरे जिक्र-हयात की ।
आया जुबां पे, नाम तेरा तौबा ज़मात की ॥
महफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
कैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥
आया वो, आके लौट गया मेरे गोर से
मुश्त-ऐ-खाक डाल न सका, रवायत की ॥
देखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥
एक ही खंज़र है "अर्श"दोनों के सिने में
लोगों ने मुन्शफी की, है ये हादिसात की ॥
प्रकाश "अर्श"
५/११/२००८
जिक्र -हयात =जिंदगी की चर्चा
ज़मात=इकठी भीड़ ,मुन्शफी =फैसला
मुस्त-ऐ-खाक =एक मुठी मिटटी ,
हादिसात = दुर्घटना ॥ गोर= कब्र
wah saahab dino-din aapki shayir rang nikharata ja raha hai...
ReplyDeleteबहुत खूब-
ReplyDeleteदेखो, अब ज़माना भी तेरे- मेरे संग है
इनको भी मिली है खुशी अपने निजात की ॥
वाह, बहुत उम्दा!!
ReplyDeleteमहफूज़ है, अब भी वहीँ ,तेरी वफ़ा की जा
ReplyDeleteकैसे भुलाऊं बात वो पहली मुलाकात की ॥
" wah wah wah, pehlee mulakat to vaise bhee nahe bhulaee jatee ek ajeeb hee kashish hotee hai..."
Regards
सुभानाल्लाह आखिरी शेर कातिलाना है....
ReplyDeleteवाहवा बंधुवर, क्या बात है, बधाई...
ReplyDeletewaah alfazn mein jazbaat behte hai,bahut shandar
ReplyDeleteएक ही खंजर है....
ReplyDeleteवाह! बहुत ही उम्दा शेर !